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Previous Nextनई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने अब सम्मान के साथ मरने को कानूनी मान्यता प्रदान कर दी है। सुप्रीम कोर्ट ने आज इच्छामृत्यु पर एक अहम फैसला सुनाते हुए कहा कि कोमा में जा चुके या मौत की कगार पर पहुंच चुके लोगों के लिए Passive Euthanasia (निष्क्रिय इच्छामृत्यु) और इच्छामृत्यु के लिए लिखी गई वसीयत (Living Will) कानूनी रूप से मान्य होगी। इस संबंध में कोर्ट ने डिटेल गाइडलाइन जारी की है। कोर्ट ने इस मामले में 12 अक्टूबर को फैसला सुरक्षित रखा था। आखिरी सुनवाई में केंद्र ने इसका दुरुपयोग होने की आशंका जताई थी।
इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया है कि लिविंग विल पर फैसला करने का मरीज के परिवारवालों या दोस्तों को हक होगा। इसमें उन्हें हत्या का दोषी नहीं माना जाएगा। हालांकि, उनके फैसले पर अंतिम मुहर मेडिकल बोर्ड लगाएगा। वो यह तय करेगा कि संबंधित मरीज का अब ठीक हो पाना मुमकिन नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कोर्ट के तय किए गए दिशा-निर्देश इस पर काननू बनने तक प्रभावी रहेंगे।
एनजीओ कॉमन कॉज ने लिविंग विल का हक देने की मांग को लेकर 2005 में पिटीशन लगाई थी। इसमें कहा गया था कि गंभीर बीमारी से जूझ रहे लोगों को लिविंग विल बनाने का हक होना चाहिए। पिटीशनर का कहना था कि इंसान को सम्मान से जीने का हक है तो उसे सम्माने से मरने का भी हक होना चाहिए।
यह एक लिखित दस्तावेज होता है, जिसमें संबंधित शख्स यह बता सकेगा कि जब वह ऐसी स्थिति में पहुंच जाए, जहां उसके ठीक होने की उम्मीद न हो, तब उसे जबरन लाइफ सपॉर्ट सिस्टम पर न रखा जाए।
आखिर क्या है इच्छामृत्यु?
किसी गंभीर या लाइलाज बीमारी से पीड़ित शख्स को दर्द से निजात देने के लिए डॉक्टर की मदद से उसकी जिंदगी का अंत करना है। यह दो तरह की होती है। निष्क्रिय इच्छामृत्यु (Passive Euthanasia) और सक्रिय इच्छामृत्यु (Active Euthanasia)।
अगर कोई लंबे समय से कोमा में है तो उसके परिवार वालों की इजाजत पर उसे लाइफ सपोर्ट सिस्टम से हटाना निष्क्रिय इच्छामृत्यु है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे इजाजत दी है।
इसमें मरीज को जहर या पेनकिलर के इंजेक्शन का ओवरडोज देकर मौत दी जाती है। इसे भारत समेत ज्यादातर देशों में अपराध माना जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे मंजूरी नहीं दी है।